डीएवी पीजी कॉलेज के इतिहास विभाग के तत्वावधान में सोमवार को आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर ‘भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में राष्ट्रवाद का उदय और भूमिका‘ विषय पर विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता राजकीय महाविद्यालय, बीएलडब्लू, वाराणसी के डॉ. कमलेश कुमार तिवारी ने कहा कि भारत में राष्ट्रवाद तीन चरणों में रहा है,
सर्वप्रथम राष्ट्रवाद की भावना सन् 1857 की क्रान्ति के दौर में जाग्रृत होती दिखलाई पड़ती है, उसके बाद सन् 1905 से 1947 तक का राष्ट्रवाद रहा जिसमें प्रत्येक भारतीय के दिल में आजादी की ललक ही दिखलाई पड़ी। तीसरा राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य आजादी के बाद का है जिसमंे बदलते परिवेश ने राष्ट्रवाद की धुरी को बदला। भारत के सुधारवादी आन्दोलन के नेता, क्रान्तिकारी नेताओं ने जन जन में राष्ट्रवाद की भावना को गढ़ा है। संचार माध्यमों ने भी राष्ट्रीयता की भावना को दृढ़ किया है। डॉ. कमलेश तिवारी ने यह भी कहा कि आजादी के 75 वर्षो में भारत अपनी उस छवि से मुक्ति की तरफ बढ़ता दिखलाई पड़ रहा है जिसमें भारत माता के स्वरूप को दुनिया के सामने प्रताड़ित और पीड़ित दिखलाया गया है।कार्यक्रम का संयोजन विभागाध्यक्ष डॉ. विनोद कुमार च.ौधरी ने किया। इस अवसर पर विभाग के डॉ. संजय कुमार सिंह, डॉ. शोभनाथ पाठक, डॉ. प्रतिभा मिश्रा, डॉ. शिवनारायण, डॉ. शशिकान्त यादव, डॉ. लक्ष्मीकान्त सिंह आदि सहित विभाग के छात्र-छात्राएॅ ऑनलाइन शामिल रहे।
डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज वाराणसी के इतिहास विभाग द्वारा Life and Thoughts of Bal Gangadhar Tilak विषयक एक दिवसीय नेशनल वेबिनार भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के महान सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की 100 वीं पुण्यतिथि पर उनके आदर्शो, विचारों, जीवन मूल्यों तथा उनके भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान को ध्यान में रख कर 31 जुलाई 2021 ई. को आयोजित किया गया। वेबिनार में मुख्य वक्ता के रूप में लोकमान्य तिलक के प्रपौत्र शैलेष श्रीकांत तिलक ने तिलक के जीवन आदर्शो पर अपनी बात रखते हुए कहा कि आज तिलक के देहावसान के सौ वर्ष बाद भी उनकी राजनीतिक विचारधारा आज भी भारतीय समाज के लिए उतनी ही उपयोगी है जितनी वह अंग्रेजी सरकार के खिलाफ होने वाली लड़ाई के समय थी। तिलक आधुनिक भारत के महानतम कर्मयोगियों में से एक थे, उन्होंने भारतवासियों को स्वराज्य के अधिकार का प्रथम पाठ पढ़ाया था। सर वैलेण्टाइन शिरोल द्वारा तिलक को ‘भारतीय अशान्ति के जनक’ की उपाधि देना उस महान् भूमिका का प्रमाण है जो तिलक ने नवीन राष्ट्रवाद के प्रचार करने में अदा की थी। वेबिनार के विशिष्ट वक्ता वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द गोखले ने कहा कि तिलक स्वराज्य को जन्म सिद्ध अधिकार मानते थे। उनके स्वराज्य प्राप्ति के साधन भी स्वराज्य की धारणा के समान ही शाश्वत सत्य पर आधारित हैं। उनका कहना था कि “स्वराज्य दिया नहीं जाता, बल्कि प्राप्त किया जाता है।” वे उदारवादियों की याचना, प्रार्थना आदि में विश्वास नहीं करते थे। उनका कहना था कि “स्वराज्य आज तक किसी विदेशी सत्ता द्वारा किसी अधीन राज्य को नहीं दिया गया है, इसका गवाह इतिहास है। जितने राष्ट्रों ने स्वराज्य प्राप्त किया है, उन्होंने अपने प्रयत्नों से ही प्राप्त किया है। याचिका की पद्धति को संघर्ष की पद्धति में बदलकर ही किसी राष्ट्र को आगे बढ़ने का अवसर मिल सकता है। उन्होने बताया की तिलक जाति-पाति और अस्पृश्यता अस्पश्यता में विश्वास नहीं करते थे। उनके अनुसार अस्पृश्यता को किसी भी नैतिक और आध्यात्मिक आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता, अतः इसका अन्त होना चाहिए। उन्होंनें कहा कि काशी उनके लिए श्रद्धास्थल के समान रही और 1906 ई. के राजघाट के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने वह यहॉ आये। इस अवसर पर बोलते हुए और सामाजिक विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व संकायप्रमुख प्रो. रामप्रवेश पाठक ने बोलते हुए कहा की बाल गंगाधर तिलक राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा युवकों को ऐसे शिक्षित करना चाहते थे की उनके अन्दर राष्ट्रीय भावना अधिकाधिक समाये तथा वे राष्ट्र सेवा का कार्य सुगमतापूर्वक कर सकें। तिलक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को ही पूर्ण न मानकर धार्मिक व आदर्श शिक्षा के भी पक्षधर थे। वे मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे और राजनीति की सफलता के लिए वे शिक्षा को आवश्यक मानते थे। कार्यक्रम में अपनी बात रखते अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रो. मानवेन्द्र पुण्डीर ने कहा की तिलक आधुनिक भारत के निर्माता थे। वे उग्र थे, परन्तु हिंसक नहीं। वे राष्ट्रभक्त एवं देशभक्त थे, परन्तु उदारवादियों की तरह राजनीतिक भिखारी नहीं। उनमें राजनीतिक आदर्शवाद और यथार्थवाद का अद्भुत समन्वय था। उनमें पैनी सूझ-बूझ,विशाल बोद्धिक क्षमता तथा गहन विद्वता थी। कार्यक्रम में बोलते हुए राँची विश्वविद्यालय के प्रो. राजकुमार ने कहा की तिलक पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की प्रधानता को समाप्त कर लोगों को भारत के प्राचीन गौरव का अनुभव कराना चाहते थे। उस समय लोगों पर अँग्रेजी नैतिकता वाली उच्चता की भी छाप थी, तिलक इस अँग्रेजी नैतिक उच्चता के मोहजाल को काटना चाहते थे। अतः वे भारतीय नायकों के जीवन से लोगों को प्रेरणा देना चाहते थे, जो अँग्रेजी चिंतन प्रणाली से मुक्ति प्रदान करने में सहायक हो। कार्यक्रम का अध्यक्षीय सम्बोधन महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. सत्यदेव सिंह द्वारा किया गया, उन्होने कहा कि तिलक अपने विचारों, कार्यो, सर्मपण और त्याग की भावना से आज अपने देहावसान के सौ साल बाद भी हम सभी के लिए आदरणीय और महत्वपूर्ण हैं। तिलक हम सभी भारत-वासियों के विचारों में जिन्दा है। तिलक महात्मा गांधी से पूर्व ही राष्ट्रीय एकता के लिए प्रयासरत थे और स्वतन्त्रता आंदोलन की लड़ाई के अग्रणी ध्वजवाहक थे। उनके द्वारा शुरू किया गया गणपति पूजन और उनकी पत्रकारिता ने सदैव देश को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य किया। वेबिनार में  प्रो. बिन्दा परांजपे ने भी तिलक के जीवन दर्शन पर अपने विचार व्यक्त किये। वेबिनार का संयोजन डॉ. विनोद कुमार चौधरी, अध्यक्ष इतिहास विभाग डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज वाराणसी, संचालन डॉ. शोभनाथ पाठक तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ. संजय कुमार सिंह द्वारा किया गया। कार्यक्रम में इतिहास विभाग डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज वाराणसी से डॉ. प्रतिभा मिश्रा, डा.शिव नरायन, डा. लक्ष्मीकान्त डा. शशिकांत तथा छात्र – छात्राएं इत्यादि भी उपस्थित रहें।